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विविध उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5379
आईएसबीएन :0000

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मैं न मानूँ

Main na manoon

प्राक्कथन

अभिमानी का सिर नीचा होता है, परंतु इस संसार में ऐसे लोग भी हैं जो सिर नीचा होने पर भी, उसको नीचा नहीं मानते। ऐसे लोगों के लिए ही कहावत बनी है—‘रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटे’।
इसका कारण मनुष्य की आद्योपांत विवेक-शून्यता है। विवेक अपने चारों ओर घटने वाली घटनाओं के ठीक मूल्यांकन का नाम है।

मन के विकार हैं—काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार। जब इन विकारों के कारण बुद्धि मलिन हो जाती है तो वह ठीक को गलत और गलत को ठीक समझने लगती है। इसको विवेक-शून्यता कहते हैं।
मन के विकारों में अहंकार सबसे अन्तिम और सबसे अधिक बुद्धि भ्रष्ट करने वाला है। अहंकारवश मनुष्य ठोकर खाकर गिर पड़ता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से वह नहीं मानता कि वह गिर पड़ा है अथवा उसका अभिमान व्यर्थ था। वह अपनी भूल स्वीकार नहीं करता और अन्त तक कहता रहता है—मैं न मानूँ, मैं न मानूँ।

व्यक्ति अथवा जातियों के जीवन में समय-समय पर ऐसे उदाहरण मिलते रहते हैं। पिछले विश्वव्यापी युद्ध में जर्मनी की पराजय 1944 के जून मास में आरम्भ हुई थी। तब ही रोमेल इत्यादि जनरल हिटलर को चेतावनी दे रहे थे कि उसके सैनिक-संगठन में दोष है, परन्तु अपनी प्रारम्भिक विजयों से मदान्ध हिटलर उसे नहीं समझ पाया। वह अन्त तक भी यह न समझ सका कि उसकी सम्पूर्ण योजना बालू की भाँति गिरती जा रही है। अन्त समय में भी वह अपनी भूल को नहीं माना।
‘मैं न मानूँ’ एक ऐसी ही, परन्तु घर-गृहस्थी की कहानी है।

गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद


पंजाब यूनिवर्सिटी की मैट्रिक की परीक्षा हो रही थी। लाहौर मॉडल स्कूल में भी एक-परीक्षा केन्द्र था। उस दिन का प्रथम-परीक्षा-पत्र देकर लड़के स्कूल के हॉल से बाहर निकले तो भगवानदास भी बाहर आया और लड़कों में दृष्टि दौड़ा किसी को ढूँढ़ने लगा। प्रायः सभी लड़के परस्पर अपने प्रश्नों के उत्तर मिला रहे थे।
भगवानदास की दृष्टि सबसे पृथक खड़े एक लड़के पर पड़ी। वह उसी ओर चल पड़ा। मार्ग में एक अन्य लड़के ने पूछा, ‘‘भगवान ! दूसरे सवाल का क्या जवाब है ?’’

भगवान ने मुस्कराते हुए कहा, ‘जो तुम अपने पर्चे में लिख आए हो।’’
दूसरा लड़का इस पर कुछ कहने ही वाला था कि भगवानदास आगे निकल गया। वह उसके पास जा पहुँचा, जिसके पास वह जाना चाहता था। ‘‘नूरुद्दीन !’’ उसने उसकी बाँह-में-बाँह डाल कर पूछा, ‘‘कैसा रहा आज का पर्चा ?’’
‘‘कुछ न पूछो, दोस्त ! चलो चलें।’’
दोनों घर की ओर चल पड़े। उन दिनों एक दिन में दो पर्चे हुआ करते थे। छः दिन में पूर्ण परीक्षा समाप्त हो जाया करती थे। परीक्षा का आज पाँचवाँ दिन था। गणित की परीक्षा का दिन था और यह पर्चा अरिथमैटिक ऐलजैबरा का था। परीक्षा प्रातः सात बजे से आरम्भ हुई थी और दस बजे पर्चे ले लिए गए थे। सायं तीन बजे दूसरा पर्चा मिलने वाला था। घर दो मील के अन्तर पर था। जाना, भोजन करना, विश्राम कर जल्दी-जल्दी ज्योमेट्री की कुछ थ्योरमों पर दृष्टि डालना और फिर पौने तीन बजे वापस हॉल के दरवाजे पर उपस्थित होना था। अतः वह चल पड़े। मार्ग में भगवानदास ने कहा, ‘‘आज का यह पर्चा तो तुम्हारा कमजोर था ही। फिर भी कितने सवाल किए हैं ?’’

‘‘भई, किए तो छः हैं, मगर ठीक तो खुदा जाने एक भी है अथवा नहीं।’’
‘‘आठ करने थे। छः किए और भला बताओ, क्या-क्या जवाब है ?’’
‘मैं लिखकर नहीं लाया।’’
‘‘तुम भी बुद्धू हो। तीन भी ठीक किए होते तो दिल को तसल्ली हो जाती।’’
‘‘तसल्ली तो मेरे दिल को इम्तिहान देने से पहले ही थी।’’ नूरुद्दीन ने कह दिया—‘‘देखो दोस्त, मैं या तो पास हो जाऊँगा या फेल। दोनों हालतों में मुझे अपने वालिद के साथ काम करना है। रोज़ सुबह सात बजे काम पर जाना है और सायं पांच बजे लौटना है। वालिद कहते थे कि तीस रुपया पाकेट खर्चा देंगे। देखो कितनी तसल्ली की बात है !’’
दोनों हँसने लगे। नूरुद्दीन ने कहना जारी रखा—‘‘वे कहते थे कि मजदूरों की हाजिरी लगानी होगी। उनको देखते रहना है कि काम करते हैं या नहीं। कहीं पेशाब करने जाते हैं तो कितने वक्त के लिए गैर-हाजिर रहते हैं। बस, अभी मेरा यही काम होगा। वहाँ न तो ऐलजैबरा के फार्मूले चाहिए, न ही तजारत के सवाल निकालने होंगे।’’

नूरुद्दीन का पिता खुदाबख्श मिस्त्री का कार्य करता-करता ठेकेदार हो गया था। वह स्वयं कुछ भी पढ़ा-लिखा नहीं था। लकीरें खींच-खींचकर हिसाब रखता था। कार्य-कुशलता तथा अनुभव के आधार पर उन्नति कर रहा था। उसने बीस राजगीर और मजदूर काम पर लगाए हुए थे और उनके वेतन तथा काम का हिसाब रखने में उसको कठिनाई अनुभव होने लगी थी। इसलिए, खुदाबख्श प्रतिदिन लड़के से पूछता रहता था—‘‘कितने दिन इम्तिहान के और हैं ?’’
इसी प्रकार एक दिन खुदाबख्श ने कहा, ‘‘अब काम बढ़ गया है। मुझको तुम्हारी मदद की सख्त ज़रूरत है।’’
‘‘बस, ‘शनिच्छर’ वार शाम को छः बजे आखिरी पर्चा है।’’
‘‘और ‘ऐतवार’ को तुमको मेरे साथ काम पर जाना है।’’
‘‘क्या मैं और नहीं पढ़ूँगा ?’’
‘‘मेरे काम के लायक बहुत पढ़ गए हो।’’
‘‘पर अब्बा जान ! मैं शादी करूँगा।’’

खुदाबख्श ने लड़के के मुख की ओर देखा और उस पर लज्जा की लाली देख कह दिया, ‘‘अपनी माँ से कहो।’’
‘‘माँ ने कह दिया। वह मान गई है।’’
‘‘क्या मान गई है ?’’
खुदाबख्श को इसमें न मानने की कोई बात समझ में नहीं आयी थी। लड़का जवान हो रहा था। भला शादी न करने की बात तो माँ कर सकती ही नहीं थी। नूरुद्दीन ने बाप को समझा दिया, ‘‘वह सादिक है न ? वही जो रेल के एग्जामिनर के दफ्तर में काम करता है। उसकी लड़की कम्मो से शादी करूँगा। माँ मानती नहीं थी। मैंने उसे राज़ी कर लिया है।’’
खुदाबख्श कितनी ही देर लड़के का मुख देखता रहा। फिर उसने पूछा, ‘‘पर सादिक मानेगा क्या ?’’
‘‘नहीं मानेगा तो उसकी लड़की को भगाकर ले जाऊँगा।’’
‘‘बहुत बदमाश हो गए हो !’’
‘‘नहीं अब्बाजान ! हमारी एक किताब में एक राजा अपनी माशूका को भगा ले जाने की बात लिखी है।’’
‘‘वह किताब स्कूल में पढ़ाई जाती है ?’’

‘‘हाँ ! उसका नाम है ‘प्रिज़नर आफ़ जैंडा’। जैंडा एक देश का नाम था। वहाँ का राजा ख़ूबसूरत, शराबी और काहिल (प्रमादी) था। एक अंग्रेज मुसाफिर वहाँ पहुँच गया। खिस्मत से उस मुसाफिर की शक्लसूरत राजा से बिल्कुल मिलती थी। राजा के वज़ीर, जो राजा की काहिली से तंग आ चुके थे, उस मुसाफिर को अपना राजा बना बैठे और असली राजा को कैद कर लिया। राजा की सगाई नगर के एक धनी आदमी की लड़की से हो चुकी थी। लड़की राजा से मिलने आती रहती थी। उस मुसाफिर के राज्य-कार्य सँभालने पर भी वह लड़की मिलने आई। उसने भी इस अदला-बदली को नहीं पहचाना। वह हैरान तो हुई। राजा की आदतों में बहुत फर्क पड़ गया था। जहाँ वह पहले शराब में मदमस्त पड़ा रहता था, वह अब वह कारोबार में लगा हुआ था।
‘‘वह मुसाफिर राजकाज को पसन्द नहीं करता था। इससे वह वहाँ से भागकर जाना चाहता था, मगर वह राजा की बनने वाली रानी से मुहब्बत करने लगा था, इसीलिए वह वहाँ टिका था। असली राजा कैद में बन्द था। आखिर, उसने लड़की को अपना राज़ बता दिया। लड़की भी उससे मुहब्बत करने लगी थी। मगर उसने कहा, ‘‘मेरा – बाप इस अदला-बदली को पसन्द नहीं करेगा। वह तो मेरे रानी बनने के ख्वाब ले रहा है। अगर तुम मुझसे शादी करना चाहते तो यहाँ के राजा बने रहो और उसको कैद रहने दो।’’

‘‘मुसाफिर को यह बात पसन्द न आई। एक तो वह इसको धोखा समझता था, दूसरे, उसको राजगद्दी से ज्यादा अपनी आजादी पसन्द थी। आखिर एक दिन वह लड़की को लेकर ‘इलोप’ कर गया। वह इंग्लैंड में जा पहुँचा और वहाँ उसने लड़की से शादी कर ली।’’
‘‘यह इलोप क्या होता है ?’’
‘‘यही, जो मैं करने की बात कर रहा हूँ।’’
‘‘बहुत गन्दी किताबें पढ़ाते हैं स्कूलों में ?’’
‘‘अब्बाजान ! मैं कम्मो से शादी करूँगा।’’
‘‘कैसी लगती है ?’’

‘‘दुबली, पतली, लम्बी, गोरी और-।’’ आगे वह अपने बाप को बता नहीं सका।
यह बुधवार की बात थी। आज शुक्रवार था। आज वह इम्तिहान देकर घर लौटते हुए भगवानदास को बता रहा था, ‘‘और, दोस्त ! मेरी एक माशूका है। मैं उससे मोहब्बत करने लगा हूँ। मेरे काम पर जाने के एक महीने के अन्दर मेरी उससे शादी होगी। कल माँ, लड़की की माँ से मिल आई हैं और बात पक्की कर आई हैं। अब बताओ, तसल्ली की बात है या नहीं ?’’
‘‘ठीक है।’’ भगवानदास ने सामने मार्ग पर चलते हुए कहा।

भगवानदास अपनी श्रेणी में सबसे योग्य विद्यार्थी था। उसके मास्टर आशा कर रहे थे कि वह मैट्रिक की परीक्षा में बहुत अच्छे अंक लेकर पास होगा। कदाचित् वह छात्रवृत्ति भी पा जाएगा। उसके घर पर भी उसके विवाह की चर्चा हो रही थी। उसका माँ उसके पिता से कह रही थीं, ‘लाला शरणदास की पत्नी कई बार आ चुकी हैं।’’
भगवानदास का पिता लोकनाथ कहा करता था—‘‘लड़के को एम.ए.पास करना है। पहले शादी कर दूँगा तो पढ़ाई न हो सकेगी।’’
‘‘सगाई तो हो सकती है।’’


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